पूर्व केंद्रीय मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने टीआरपी के धंधे पर यह भाषण सोमवार, 27 जुलाई 2009 को राज्यसभा में दिया। भाषण में टीआरपी की आड़ में देश के बड़े हिस्से को चैनल स्क्रीन से बाहर रखने की राजनीति पर उन्होंने रोशनी डाली। दूसरे सदस्यों ने भी उनका समर्थन किया और सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने भरोसा दिया कि हम इस दिशा में ज़रूर कुछ करेंगे। टीआरपी पर राज्यसभा में हुई इस बहस की रिपोर्टिंग अख़बारों में छपी, लेकिन हम रवि शंकर प्रसाद का पूरा भाषण यहां पब्लिश कर रहे हैं – ताकि पाठकों को यह पता चले कि टीआरपी को लेकर एक राजनीतिज्ञ का ग़ुस्सा कितने रचनात्मक तरीक़े से बाहर आता है। इस तरह के भाषण की उम्मीद एक बीजेपी सांसद से तो कतई नहीं थी !
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उपसभाध्यक्ष जी, मैं अपने मन में एक सवाल पूछता हूं कि समाज, सरकार, संसद, सर्जना और सेंसर, इसके बीच में क्या रिश्ता हो ? यह सवाल एक लोकतंत्र में हमेशा उठता है। उपसभाध्यक्ष जी, मेरी समझ यह है कि सेंसर की सुई इस प्रकार से नहीं चलनी चाहिए कि सर्जना की सरिता सूख जाए। इसके साथ ही, इतना आवश्यक यह भी है कि सर्जना का अधिकार इतना उच्छृखंल नहीं होना चाहिए कि संस्कारों के सरोवर गंदे हो जाएं। यह basic bench-mark है। Censor should not kill creativity, and the Right of Creativity should not be so irresponsible that it pollutes the time-tested propriety. यह मौलिक बिंदु हमको समझना पड़ेगा, जो बहुत आवश्यक है। लेकिन कई बार लक्ष्मण रेखा का अतिक्रमण हो जाता है। उपसभाध्यक्ष जी, अब उसका निदान कौन करेगा, बात यहां पर आती है। मैं बहुत प्रमाणिकता से महसूस करता हूं कि सरकार की भूमिका इसमें बहुत कम होनी चाहिए। We need to respect the freedom of the media and the Right of Creativity, and the Government should have a minimum role. लेकिन समस्या तो है और जब हम संसद में हैं, अगर देश यह चिंता करता है, तो हमें इसका उत्तर ढूंढ़ना पड़ेगा, इसका क्या उत्तर होगा? इसके पीछे समस्या क्या है? मैं कुछ बातें आज खुलकर कहना चाहता हूं – मीडिया से भी, क्योंकि मीडिया के लोग हमारे मित्र हैं। आप ग़लतियों को ज़रूर निकालिए, लेकिन एक sting operation हुआ एक टीचर अरोड़ा के साथ। उस sting operation के बाद हमने उसको पिटते हुए देखा है। बाद में मालूम हुआ कि वह पूरा sting operation ग़लत था। क्या हम उसके सम्मान को रेस्टोर कर सके? यह सवाल कहीं न कहीं उठाना पड़ेगा? हम उसकी कितनी बड़ी क्षति कर गए, उसकी पूरी प्रतिष्ठा को, सम्मान को, His entire reputation stands completely destroyed before his pupils, before his students, and also before the society. उपसभाध्यक्ष जी, एक कार्यक्रम गुड़िया का था। यह एक चैनल पर आया था। वह मुस्लिम समाज से आती थी। उसका पति शायद ग़ायब हो गया था। उसकी दूसरी शादी हो गयी थी। बाद में उसका पति वापिस आ गया। उसकी शादी का असर क्या है, यह चर्चा में आ गया। अब एक चैनल उसका इंटरव्यू ले रहा है और अब वह बड़ा विषय बन गया। मुझे मेरे पत्रकार मित्रों ने बताया कि बाक़ी चैनल वालेउस चैनल के यहां पहुंच गये, कुछ लोग एफआईआर कर रहे हैं कि हमको भी गुड़िया मिलनी चाहिए, क्योंकि इस गुडि़या को हम भी दिखाएंगे। आप उस औरत की मानसिक परेशानी को समझिए। How she feels? मुझे याद है कि पटना में हमारे कुछ मित्रों ने धरना-प्रदर्शन में बंद कर रखा था और दानापुर के पास, तारिक अनवर जी, आपने वह कहानी देखी होगी, एक महिला डिलिवरी के लिए जा रही थी और बंद के कारण उसकी डिलिवरी सड़क पर ही हो गयी। अब सुबह से शाम तक उस बेचारी महिला की तस्वीर, आपको कैसा लग रहा है, It was down right atrocious; I have not the slightest doubt in saying that. यह क्यों होना चाहिए, यह कब तक होना चाहिए ? ये बड़े सवाल हैं।
उपसभाध्यक्ष जी, जहां एक ओर मैं इस देश के टेलिविज़न के इंटरटेनमेंट और मीडिया की तारीफ करूंगा कि इसने देश में बहुत अच्छे काम किये हैं। आज लोग इंटरटेनमेंट को एप्रिसिएट करना सीख गये। मुझे याद है, मैं टेलिविज़न की डिबेट में जाता हूं। जयंती और अभिषेक हैं। हां, अभिषेक आज हैं। आज आपको मैं बहुत दिन के बाद देख रहा हूं। उपसभाध्यक्ष जी, पहले जब हम टीवी डिबेट के लिए जाया करते थे, आपको याद होगा, तो हम लोगों की कोशिश होती थी कि हम लोग दूसरे को बोलने नहीं दें। सिब्बल साहब भी हैं। He has also been an equally important face on television debates. लेकिन देश ने हमसे अपेक्षा की कि आप civilised debate करिए, अपनी पारी का इंतज़ार करिए और आहिस्ता-आहिस्ता आज देश में हर टेलिविज़न की डिबेट का स्तर बढ़ा है।
उसी प्रकार से जो प्रोग्राम्स के कंटेंट हैं, उनका भी असर बढ़ा है। अगर कोई प्रोग्राम पूअर होता है, लोग उसको लाइक नहीं करते हैं, लेकिन महोदय, दिक्कत कहां आ रही है, यह बहुत समझने की जरूरत है। दिक्कत यहां आती है कि क्या बिकता है, क्या चलता है, क्या लोग देखना चाहते हैं? अब सवाल पूछिए कि ऐसा क्यों होता है? मुझे याद है, मेरे एक बड़े अच्छे दोस्त थे, जो टेलीविजन के कॉरिस्पोंडेंट थे। वे पॉलिटिकल इस्यूज को कवर करते थे। उन्होंने मुझसे कहा कि रवि जी, मैं दो सपेरों को लेकर आगरा गया था, क्योंकि मुझे दो सांप खोजने थे, जो साथ-साथ नाचते थे। मैंने कहा कि आपको क्या हो गया है? उन्होंने कहा कि क्या बोलूं, आजकल यही बिकता है, इसलिए खोज कर रहा था। उपसभाध्यक्ष महोदय, सबसे बड़ी चिंता यही है और इससे बड़ा सवाल यह उठता है, लोग कहते हैं कि ये लोग देखना चाहते हैं। इसके साथ यह सवाल उठता है कि आप दिखाना क्या चाहते हैं? आपको किसने यह अधिकार दे दिया कि देश क्या देखना चाहता है, इसकी सही समझ आपको ही है। They are important issues. We need to understand them. महोदय, जो मैंने समझा है, वह यह है कि इस पूरे घालमेल के पीछे जो एक सबसे बड़ी परेशानी है, वह है TRP की राजनीति। the politics of Television Rating Points. जो आज सबसे अधिक अन-साइंटिफिक तरीके से हो रहा है। कोई कहता है कि हमारा चैनल सबसे बड़ा तेज़ चैनल है, तो कैसे है? आज की TRP में हमारा प्वाइंट ऊपर है, तो दूसरा कहता है कि उनकी TRP का प्वाइंट एक बजे तक ऊपर था, तीन बजे के बाद हम ऊपर चले गये हैं। उपसभाध्यक्ष महोदय, मैं आज इस हाउस को बड़ी नम्रता से यह बताना चाहता हूं कि The greatest fraud is being played on the country in the management of the TRP; and I say so with full sense of responsibility. यह देश कोई 110 या 112 करोड़ का है। यहां एक या दो प्राइवेट एजेंसीज हैं। उन्होंने कहां से यह अधिकार प्राप्त कर लिया और देश में कुछ हजार मीटर्स रख लिये तथा कुछ शहरों में रख दिये। बस, उनको यह मोनोपली मिल गयी कि हम यह तय करेंगे कि इनकी रेटिंग A है और इनकी रेटिंग B है। जब आपकी रेटिंग अच्छी होगी, तो आपको विज्ञापन मिलेगा। रेटिंग अच्छी करने के लिए आई बॉल चाहिए। आई बॉल करने के लिए बस, यही बिकता है। This is the whole unfortunate nexus. मुझे मालूम है कि हमारे टेलीविजन में काम करने वाले एक से एक अच्छे लोग हैं। हमारे न्यूज़ चैनल्स में एक से एक अच्छे लोग हैं, जो देश को यह बताना चाहते हैं कि देश कैसे आगे बढ़ रहा है तथा देश कहां उलझ रहा है? उनके पास इसकी एक से एक स्टोरी है, लेकिन उनसे कहा जाता है कि आपकी स्टोरी बिकती नहीं है, क्योंकि इसमें TRP नहीं है। That is the real problem.
उपसभाध्यक्ष महोदय, मुझे आज तक याद है कि एक चैनल का एक कार्यक्रम था कि इस देश के दलितों की स्थिति कैसी है? I remember that programme, a five day programme, on the rights of our oppressed people, one symbol. उत्तर प्रदेश के किसी गांव की कहानी थी कि वह दलित साइकिल से आ रहा था और एक घर के सामने वह साइकिल से उतर गया। He would ride on that cycle even after 60 years of independence. जब वह उस घर को पार कर जाएगा, फिर वह साइकिलचलाएगा। यह एक इतना रचनात्मक शोर्ट था, हमने कहा कि यह उन्होंने देश की एक बहुत बड़ी समस्या को किस तरीके से उठाया है। मुझे मालूम है कि हर चैनल में बहुत अच्छा काम करने वाले लोग हैं, लेकिन बिकता नहीं है। सर, आज सबसे बड़ी बात इस देश को सोचनी है, संसद को सोचनी है और मंत्री जी मैं इस पर आपका उत्तर चाहूंगा कि What steps are you taking to undo this wholly non-transparent TRP business going on in this country? What is their accountability? Who has created it? What is their legal sanctity? All these things are required to be taken note of. मैं बिहार से आता हूं और कई लोग बंगाल से आते हैं तथा यहां पर असम से भी लोग हैं। वहां पर एक भी डिब्बा नहीं है। यदि पटना में दो-तीन मिल जाएं तो बड़ी ग़नीमत होगी।
(व्यवधान)
उत्तर प्रदेश का वही हाल है, काशी में नहीं है, असम में नहीं है और लखनऊ में नहीं है, लेकिन मुंबई में होगा, दिल्ली में होगा क्योंकि विज्ञापन का सारा केंद्र मुंबई है, दिल्ली है। यहां पर विज्ञापन बनते हैं। यदि विज्ञापन चलाना है तो आई बॉल चाहिए। यदि आई बॉल चाहिए तो दिखाना है।
यह वेस्टेड नेक्सेस बन गया है। मंत्री जी, मैं स्पष्ट करना चाहूंगा, मैंने साफ कहा है कि मैं किसी सरकारी हस्तक्षेप के पक्ष में नहीं हूं, But it is high time you should have a law, have an autonomous regulator to determine the TRP of all the channels in the country by a proper support of law and we are willing to support you. यह मैं आपसे कहना चाहता हूं। आज देश में हमें गर्व होना चाहिए कि हिंदुस्तान में इतने चैनल्स हैं। उनका रेट ऑफ ग्रॉथ फिफटीन परसेंट है। We are proud of that growth. आज हिंदुस्तान के टेलीविजन के अच्छे प्रोग्राम वर्ल्ड के बेस्ट प्रोग्राम्स में आते हैं। इसके बारे में ईमानदारी से सोचना पड़ेगा और देश को फैसला करना पड़ेगा कि एक ऑटोनॉमस रेग्युलेटर हो, उसमें मीडिया के भी लोग रहें, वे लोग न्याय हित में हों, वे टीआरपी तय करें। मैं सोचता हूं कि यह पूरी TRP मंथ टू मंथ तय होनी चाहिए। प्रोग्राम वाइज, डे वाइज और ऑवर वाइज नहीं तय होनी चाहिए। This creates the biggest vested interest. हम चाहेंगे कि आप इस दिशा में कुछ प्रामाणिकता से फैसला करें। एक और समस्या है..
(व्यवधान)
आप मुझे पांच मिनट का समय दीजिए, बड़ी कृपा होगी। मैं बहुत महत्वपूर्ण बात कहने जा रहा हूं। एक विज्ञापन की समस्या है। माननीय अंबिका सोनी जी, आपका जो रूल है, आपको याद होगा कि केबल कंडक्ट्स रूल के अंतर्गत आप एक घंटे में सिर्फ बारह मिनट का विज्ञापन दिखा सकते हैं। आपको पता है कि विज्ञापन कितनी देर दिखाया जाता है। अक्सर विज्ञापन का जो मामला है – मुझे याद है, मैं उन दिनों पद पर था, दो-तीन विज्ञापनों को लेकर बहुत चिंता हुई। वह मैंने नोटिस किया, उन्होंने कहा कि एडवरटाइजमेंट कौंसिल, उनकी एक अंदर की बॉडी है, वह इसे देखती है। जब यह विषय अख़बार में आया तो एडवरटाइजमेंट कौंसिल के एक अवकाशप्राप्त सचिव ने मुझे पत्र लिखा कि मंत्री जी, एडवरटाइजमेंट कौंसिल कुछ नहीं करती। जब तक वह नोटिस करती है, जवाब आता है, तब तक विज्ञापन का एक साल का कोर्स ख़त्म हो जाता है। Some of the advertisements are very good. जो मुझे सबसे ज्यादा भाता है, वह एक फोन कंपनी का विज्ञापन है, जिसमें एक छोटा कुत्ता, एक छोटी लड़की के साथ होता है, यह हाइट ऑफ क्रिएटिविटी है। उसके साथ ही साथ कितने भद्दे विज्ञापन आते हैं, जो भारतीय महिलाओं के प्रति कितना बड़ा अन्याय है, मैं उनके लिए शब्दों का प्रयोग नहीं कर सकता हूं। इन विज्ञापनों में कोई क्रिएटिविटी नहीं होती है। मंत्री जी आप जानती होंगी कि It is plain and simple commerce to promote good. इसलिए उसके बारे में जरूर विचार करना पड़ेगा।
उपसभाध्यक्ष जी, मुझे आपसे दो-तीन बातें और कहनी हैं। यह जो ऑब्सेनिटी की बात करते हैं, समय बदला है तो हमें समय के अनुसार बदलना पड़ेगा। जैसे इस देश में लगभग सिक्स्टी परसेंट से प्लस यूथ हैं। यूथ हैं तो उनके पांव थिरकेंगे और संसद में बैठ कर हम कभी यह न सोचें कि हम नौजवानों को उनके पांव थिरकने से रोकेंगे, लेकिन इससे बड़ा एक और विषय है कि यह देश क्या सोचता है।
मैं आपको एक उदाहरण देना चाहता हूं कि 1995-96 के दशक में हिंदी फिल्मों में डबल मीनिंग वाले गानों को लिखने का एक चलन हो गया था। वे गाने इतने फूहड़ हैं कि मैं उनको सदन के पटल पर रखने की हिम्मत नहीं कर सकता हूं। अच्छे-अच्छे गीतकार इंदीवर सरीखे गीतकार भी खटिया सरका रहे थे, ऐसे गाने लिख रहे थे। उसी समय जावेद अख्तर साहब ने 1942 ए लव स्टोरी में एक गाना लिखा, एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा, जैसे खिलता गुलाब। It was the height of romantic creativity. वह गाना देश में लोकप्रिय हो गया। यह इतना लोकप्रिय हुआ कि पूरे देश में लोग इसे गुनगुना रहे थे। मैं अपने मित्रों से कहूंगा कि यही हिंदुस्तान है। इस हिंदुस्तान के सही मर्म को समझना ज़रूरी है। मैं आजकल देखता हूं कि नये प्रोग्राम आते हैं, नये टीवी आते हैं, नया चैनल आता है तो कहते हैं कि आप हमारे यहां रामायण देखिए, दूसरा चैनल कहता है आप हमारे यहां कृष्ण देखिए, उनकी टीआरपी बढ़ती है। विज्ञापन भी मिलता है। एक चैनल अपने यहां मीराबाई को दिखाने की कोशिश कर रहा है, लोग देख रहे हैं। इतनी बड़ी संख्या में spiritual चैनल्स आये हैं, उनकी रेटिंग कितनी बढ़ी है। आज रामदेव बाबा योग दिखाते हैं, उनकी रेटिंग कितनी बढ़ी है। लेकिन होता क्या है कि टेलीविजन की पूरी डिबेट has gone haywire. आप कभी सार्थक चर्चा भी कीजिए, तो आप मीडिया के राइट को कंट्रोल कर रहे हैं, आप फ्रीडम ऑफ प्रैस को कंट्रोल कर रहे हैं। मेरे ख़याल से यह दृष्टिकोण ठीक नहीं है। मैं बहुत विनम्रता से अपने मीडिया के लोगों से कहना चाहूंगा कि हम उनके पूरे अधिकारों का सम्मान करते हैं, लेकिन जब हम संसद में बैठते हैं तो हमारी जवाबदेही देश के प्रति बनती है। हो सकता है कि आज मेरी कई टिप्पणियां तीखी लगी होंगी, हो सकता है कि शाम को कई चैनल्स पर मेरा चेहरा दिखाया जाएगा, लेकिन शायद मेरी जवाबदेही देश के प्रति भी बनती है और अगर हमारे मीडिया के मित्र, एंटरटेनमेंट के मित्र उस जवाबदेही को समझेंगे तो मैंने चिंतन के लिए जो बात कही है, वे उसका स्वागत करेंगे, बहुत-बहुत धन्यवाद।
दृष्टिकोण
शुक्रवार, 31 जुलाई 2009
शनिवार, 27 जून 2009
क्योंकि हकीकत जगजाहिर है.....
सपने देखे थे बंद आंखों से, अब सच हाजिर है
चुप्पी साध रखी है ख्वाबों ने, हकीकत जगजाहिर है
चले थे कही दूर देश से खुशियां और बढ़ाने
बची हुई चीजें समेट आया था आशियाना बनाने
हर लम्हा तब बदसूरत नहीं था दोस्तों
हर शख्श बेईमान नहीं था दोस्तों
पर, अब खामोश हैं सभी ख्वाब
यही सच है, क्योंकि हकीकत जगजाहिर है
तिनका-तिनका घरौंदा बनना चाहता है
धागा-धागा रेशम बनना सोचता है
हर सांस, मुकम्मल जिंदगी मांगता है
पर, मौत का साया हर वक्त डराता है
यही सच है, क्योंकि हकीकत जगजाहिर है
कोई एक आया था रकीब-रहबर बन कर
कई झोलों में लाख-हजार सपने भर कर
बिखेर दिये थे ख्वाबों को हकीकत बना कर
तभी कोई हवा का झोंका आया तूफान हो कर
तैरती रहीं कई टोपियां, जूते आसमान में
यही सच है, क्योंकि हकीकत जगजाहिर है
फिर से फिजां बदलेगी, मुस्कान लौटेगी
खिलखिलाती हंसी फिर से सजेगी
हर अक् स का फिर से अपना चेहरा होगा
कई बार वक्त बदलते देखा है
दरअसल एक सोच है,जो कभी हारती नहीं
जिंदगी बा जिंदगी यू ही चलती रहती है
बस, यही हकीकत है, और जगजाहिर है...
--प्रणव दत्त
चुप्पी साध रखी है ख्वाबों ने, हकीकत जगजाहिर है
चले थे कही दूर देश से खुशियां और बढ़ाने
बची हुई चीजें समेट आया था आशियाना बनाने
हर लम्हा तब बदसूरत नहीं था दोस्तों
हर शख्श बेईमान नहीं था दोस्तों
पर, अब खामोश हैं सभी ख्वाब
यही सच है, क्योंकि हकीकत जगजाहिर है
तिनका-तिनका घरौंदा बनना चाहता है
धागा-धागा रेशम बनना सोचता है
हर सांस, मुकम्मल जिंदगी मांगता है
पर, मौत का साया हर वक्त डराता है
यही सच है, क्योंकि हकीकत जगजाहिर है
कोई एक आया था रकीब-रहबर बन कर
कई झोलों में लाख-हजार सपने भर कर
बिखेर दिये थे ख्वाबों को हकीकत बना कर
तभी कोई हवा का झोंका आया तूफान हो कर
तैरती रहीं कई टोपियां, जूते आसमान में
यही सच है, क्योंकि हकीकत जगजाहिर है
फिर से फिजां बदलेगी, मुस्कान लौटेगी
खिलखिलाती हंसी फिर से सजेगी
हर अक् स का फिर से अपना चेहरा होगा
कई बार वक्त बदलते देखा है
दरअसल एक सोच है,जो कभी हारती नहीं
जिंदगी बा जिंदगी यू ही चलती रहती है
बस, यही हकीकत है, और जगजाहिर है...
--प्रणव दत्त
गुरुवार, 4 सितंबर 2008
बिहार की मदद में आगे आएं
बाढ़ से तबाह बिहार की मदद के लिए भास्कर समूह के अध्यक्ष रमेश चंद्र अग्रवाल की अपील-
बिहार में कोसी नदी की बाढ़ के पानी ने लाखों लोगों को न सिर्फ बेघरबार कर दिया है, बल्कि वे इस समय जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। बिहार में विभीषिका का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि बाढ़-प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करने के बाद प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने इसे एक राष्ट्रीय आपदा घोषित किया है।
बिहार के कोई सोलह जिलों के करोड़ों लोग पिछले दो सप्ताह से भी अधिक समय से विनाशकारी बाढ़ के कारण उत्पन्न परेशानियों से जूझ रहे हैं। कई जिले तो पूरी तरह तबाह हो चुके हैं। विनाश का तांडव कब खत्म होकर हालात सामान्य करेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। बाढ़ के पानी के उतरने की खबरों के साथ ही बिहार में तकलीफों का नया सिलसिला प्रारंभ हो गया है।
बिहार अपने संकट की घड़ी में समूचे देश की ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रहा है। देशवासियों से उसे सहानुभूति और मदद की अपेक्षा है। देश के किसी भी कोने ने जब-जब भी ऐसी किसी आपदा का अनुभव किया है, राष्ट्र के नागरिक उठ खड़े हुए हैं और उन्होंने सहायता का हाथ आगे बढ़ाया है। ऐसा ही अवसर आज फिर उपस्थित हुआ है।
एक राष्ट्रीय मीडिया संस्थान के रूप में भास्कर समूह ने भी ऐसे हर अवसर पर अपनी जिम्मेदारी का परिचय दिया है और अपनी पहल में अपने करोड़ों पाठकों को भी शामिल किया है।
भास्कर समूह की ओर से पांच लाख रुपए की राशि देने की घोषणा के साथ मैं अपने सभी पाठकों, विज्ञापनदाताओं और शुभचिंतकों से अपील करता हूं कि वे बिहार की आपदा मे मदद के लिए अपने हाथ बढ़ाएं। आप इसके लिए दैनिक भास्कर के कार्यालय मे संपर्क कर अपनी राशि नकद या भास्कर रिलीफ फण्ड के नाम से चेक के रूप में दे सकते हैं।
भास्कर रिलीफ फण्ड में दिए गए दान को आयकर अधिनियम 1961 की धारा 80 जी में छूट प्राप्त होगी। मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि आपके द्वारा दी गई राशि प्रधानमंत्री सहायता कोष अथवा अन्य किसी उपयुक्त माध्यम से बिहार के जरूरतमंद नागरिकों तक पहुंचेगी और उसका सही तरीके से उपयोग भी होगा।
बिहार में कोसी नदी की बाढ़ के पानी ने लाखों लोगों को न सिर्फ बेघरबार कर दिया है, बल्कि वे इस समय जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। बिहार में विभीषिका का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि बाढ़-प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करने के बाद प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने इसे एक राष्ट्रीय आपदा घोषित किया है।
बिहार के कोई सोलह जिलों के करोड़ों लोग पिछले दो सप्ताह से भी अधिक समय से विनाशकारी बाढ़ के कारण उत्पन्न परेशानियों से जूझ रहे हैं। कई जिले तो पूरी तरह तबाह हो चुके हैं। विनाश का तांडव कब खत्म होकर हालात सामान्य करेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। बाढ़ के पानी के उतरने की खबरों के साथ ही बिहार में तकलीफों का नया सिलसिला प्रारंभ हो गया है।
बिहार अपने संकट की घड़ी में समूचे देश की ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रहा है। देशवासियों से उसे सहानुभूति और मदद की अपेक्षा है। देश के किसी भी कोने ने जब-जब भी ऐसी किसी आपदा का अनुभव किया है, राष्ट्र के नागरिक उठ खड़े हुए हैं और उन्होंने सहायता का हाथ आगे बढ़ाया है। ऐसा ही अवसर आज फिर उपस्थित हुआ है।
एक राष्ट्रीय मीडिया संस्थान के रूप में भास्कर समूह ने भी ऐसे हर अवसर पर अपनी जिम्मेदारी का परिचय दिया है और अपनी पहल में अपने करोड़ों पाठकों को भी शामिल किया है।
भास्कर समूह की ओर से पांच लाख रुपए की राशि देने की घोषणा के साथ मैं अपने सभी पाठकों, विज्ञापनदाताओं और शुभचिंतकों से अपील करता हूं कि वे बिहार की आपदा मे मदद के लिए अपने हाथ बढ़ाएं। आप इसके लिए दैनिक भास्कर के कार्यालय मे संपर्क कर अपनी राशि नकद या भास्कर रिलीफ फण्ड के नाम से चेक के रूप में दे सकते हैं।
भास्कर रिलीफ फण्ड में दिए गए दान को आयकर अधिनियम 1961 की धारा 80 जी में छूट प्राप्त होगी। मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि आपके द्वारा दी गई राशि प्रधानमंत्री सहायता कोष अथवा अन्य किसी उपयुक्त माध्यम से बिहार के जरूरतमंद नागरिकों तक पहुंचेगी और उसका सही तरीके से उपयोग भी होगा।
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